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गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का

गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का

रग-ए-गुल में जो आलम था तिरी अंगिया की डोरी का

बराबर एक से मिसरे नज़र आते हैं अबरू के

तवारुद कहिए या है एक में मज़मून चोरी का

बहुत ग़म खाते खाते इक-न-इक दिन जान जाएगी

ज़रर रखता है ऐ दिलबर नतीजा सेर-ख़ोरी का

हुआ है हम को इक मुतरिब पिसर की ज़ुल्फ़ का सौदा

हमारा शोर-ए-वहशत भी ये इक पट्टा है शोरी का

ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहो आने दो न आने दो

मैं बोसे लूँगा सोते में मुझे लपका है चोरी का

अगर तुम बोसा-ए-सेब-ए-ज़क़न से हो गए क़ातिल

गले पर फेर दीजे मेरे चाक़ू मेवा-ख़ोरी का

कोई शैदा-ए-आरिज़ है कोई ज़ुल्फ़ों का दीवाना

किसी को इश्क़ काली का कोई आशिक़ है गोरी का

कहीं हो अच्छी सूरत देख लूँ दीदार नज़रों से

मिरी आँखों को चोरों की तरह लपका है चोरी का

मिसी-आलूद लब चूसे जो उस के बलबे शीरीनी

मज़ा आया मिरे मुँह में सियह पोन्डे की पूरी का

शब-ए-ग़म में फ़ुग़ाँ करता हूँ जब थम जाते हैं आँसू

तमाशा देखो तिफ़्ल-ए-अश्क भी ख़ूगर है लोरी का

न बाँधो शे'र में दुज़्द-ए-हिना का ऐ 'क़लक़' मज़मूँ

कहेगा यार शोख़ी से ये है मज़मून चोरी का

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