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दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया

दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया

ईद आई तो मैं समझा कि मोहर्रम आया

ख़ून-ए-दिल हो गया शायद दम-ए-गिर्या जो आज

एवज़-ए-अश्क लहू आँखों से पैहम आया

नाज़ुकी कहते हैं उस को कि हज़ारों बल खाते

ता-कमर यार का जब गेसू-ए-पुर-ख़म आया

दिल में है जल्वा-कुनाँ चाह-ए-ज़नख़दाँ का ख़याल

ऐन का'बे में नज़र चश्मा-ए-ज़मज़म आया

फिर बहार आएगी फिर दाग़-ए-जुनूँ चमकेंगे

फिर सू-ए-बुरज-ए-हमल नय्यर-ए-आज़म आया

पाक-दामन है तो ऐसा कि पए सिद्क़-कलाम

शान-ए-इस्मत में तिरी सूरा-ए-मरियम आया

दी दुहाई तिरी रहमत की गुनहगारों ने

लब-ए-वाइज़ पे जूँही नाम-ए-जहन्नम आया

दश्त-ए-ग़ुर्बत में ब-जुज़ बेकसी-ओ-यास-ओ-अलम

क़ब्र-ए-मजनूँ पे न कोई पए मातम आया

शेर-गोई है वो शय जिन का सिला देने को

ख़्वाब-ए-फ़िरदौसी-ए-ख़ुश-फ़िक्र में रुस्तम आया

फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल

गोश-ए-गुल तक न कोई क़तरा-ए-शबनम आया

जीते-जी ही के थे सब यार पस-ए-मर्ग 'क़लक़'

गोर पर कोई न ग़म-ख़्वार न हमदम आया

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