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चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़ - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़

चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़

नर्गिस की आँख में भी नहीं है ज़रा लिहाज़

बे-गाली अब तो बात भी करते नहीं कभी

वो इब्तिदा में करते थे बे-इंतिहा लिहाज़

तन्हा मैं और इतने वहाँ हैं मिरे रक़ीब

नाज़-ओ-अदा ग़मज़ा-ओ-शर्म-ओ-हया लिहाज़

साक़ी की बे-रुख़ी की कहाँ ताब थी मगर

पीर-ए-मुग़ाँ की रूह का करना पड़ा लिहाज़

क्या वस्फ़-ए-चश्म-ए-यार करूँ इस के सामने

नर्गिस से है फ़क़त मुझे इक आँख का लिहाज़

हुर्मत बड़ी है उस की न कर हज्व इस क़दर

लाज़िम है दुख़्त-ए-रज़ का तुझे वाइज़ा लिहाज़

निकली न ख़ुम से बज़्म-ए-जवानान-ए-मस्त में

पीर-ए-मुग़ाँ का बिन्त-ए-इनब ने किया लिहाज़

फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी

ख़ैर उस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़

बे-ख़ुद शराब-ए-शौक़ ने शब को ये कर दिया

उन को रहा हिजाब न मुझ को रहा लिहाज़

क़ुर्बान इस हिजाब के इस शर्म के निसार

इतना न आशिक़ों से कर ऐ मह-लक़ा लिहाज़

महजूब है मिज़ाज 'क़लक़' अपना इस क़दर

करते हैं अपने ख़ुर्द का भी हम बुरा लिहाज़

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