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बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को

बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को

पर्दा-ए-कुफ़्र में हासिल हुआ ईमाँ मुझ को

अब दर-अंदाज़ी-ए-अग़्यार नहीं चल सकती

ख़ूब पहचानते हैं यार के दरबाँ मुझ को

ख़ाल-ए-रुख़ ख़िज़्र-ए-रह-ए-कुफ़्र न होता जो तिरा

दाम में ला ही चुके थे ये मुसलमाँ मुझ को

जिस में कुछ होती है उम्मीद-ए-विसाल-ए-मा'शूक़

इतनी खलती नहीं वो गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को

ये न मा'लूम था इस रंग से आएगी बहार

तौबा-ए-मय ने किया सख़्त पशेमाँ मुझ को

इश्क़ ने मन्सब-ए-उ'श्शाक़ जो तक़्सीम किए

बाग़ बुलबुल को दिया कूचा-ए-जानाँ मुझ को

दिल-जला मैं हूँ वो आशिक़ कि शब-ए-हिज्र 'क़लक़'

शम्अ' भी रोने लगे देख के गिर्यां मुझ को

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