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बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़ - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़

बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़

सारा ज़माना आज तो है यार की तरफ़

जिन आँख से लिया था दिल अब वो रही न आँख

हैरत से देखता हूँ रुख़-ए-यार की तरफ़

दरबाँ कभी जो रोके वो नाज़ुक मिज़ाज हैं

मुँह कर के सोएँ हम न दर-ए-यार की तरफ़

हारे हुए हो बोसों का कर लो अभी हिसाब

फ़ाज़िल है कुछ हमारा ही सरकार की तरफ़

बैठा है कब से मुंतज़िर याँ पर निगाह-ए-मेहर

देख आँख उठा के तालिब-ए-दीदार की तरफ़

पड़ती है जबकि अबरू-ए-क़ातिल पे मेरी आँख

रह रह के देखता है वो तलवार की तरफ़

दाग़-ए-रिया शराब से धोने के वास्ते

ज़ाहिद चला है ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार की तरफ़

बुलबुल ने की बहार में किस यास से इक आह

चाक-ए-क़फ़स से देख के गुलज़ार की तरफ़

पढ़ता हूँ फ़ातिहा मैं सू-ए-क़ब्र-ए-कोहकन

होता है जब गुज़र कभी कोहसार की तरफ़

यूँ दिल पे मेरे पड़ती है आँख उस की जिस तरह

जल्लाद देखता है गुनहगार की तरफ़

करता है शौक़-ए-दिल के एवज़ मोल हुस्न का

दल्लाल बोलता है ख़रीदार की तरफ़

आईना साँ हूँ आमद-ए-दिलबर का हैरती

रुख़ सू-ए-दर है पुश्त है दीवार की तरफ़

फूलों में ये कहाँ ख़लिश-ए-ख़ार का मज़ा

जाना जुनूँ न दश्त से गुलज़ार की तरफ़

बर्बाद कर न ख़ाक मिरी ऐ हवा-ए-शौक़

ले चल उड़ा के कूचा-ए-दिल-दार की तरफ़

कौन अब करे हमारी तरफ़-दारी ऐ 'क़लक़'

दिल तक है अपना अपने दिल-आज़ार की तरफ़

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