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आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे

आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे

हम अपनी बे-ख़ुदी के तमाशे दिखाएँगे

हम नक़्द-ए-दिल जो सीने में अपने न पाएँगे

दुज़्द-ए-निगाह-ए-यार को चोरी लगाएँगे

ऐ बे-ख़ुदी जो आप में हम अब की आएँगे

फिर दिल-लगी से भी नहीं दिल को लगाएँगे

जब सू-ए-दश्त आप के दीवाने जाएँगे

फ़रहाद-ओ-क़ैस दूर तलक लेने आएँगे

परवाना वो कहेंगे तो हम उन को शो'ला-रू

हम भी जलाएँगे जो वो हम को जलाएँगे

क्यूँ दाबते हैं होंठ वो दाँतों में बार बार

क्या तेग़-ए-लब को आब-ए-गुहर में बुझाएँगे

दाम-ए-बला से देखिए क्यूँकर नजात हो

कब तक वो हम को ज़ुल्फ़ की गलियाँ झकाएँगे

वहशी-ए-चश्म-ए-यार जो निकलेगा शहर से

आँखों को ढेले आहू-ए-सहरा लगाएँगे

हूरों से चल के दाद-ए-जमाल उस की लेंगे हम

तस्वीर-ए-यार क़स्र-ए-जिनाँ में लगाएँगे

उट्ठेंगे फिर न बैठ के मानिंद-ए-नक़्श-ए-पा

हम अपने ज़ोफ़ की तुम्हें ताक़त दिखाएँगे

जागे हुए फ़िराक़ के सोते हैं ज़ेर-ए-ख़ाक

बद-ख़्वाब हों के हम जो फ़रिश्ते जगाएँगे

लेने में जिंस-ए-दिल के तो उजलत कमाल है

देने में नक़्द-ए-वस्ल के बरसों झकाएँगे

गर्म-ए-ख़िराम होंगे अगर सेहन-ए-बाग़ में

अँगारों पर वो कब्क-ए-चमन को लुटाएँगे

सीना-सिपर हैं आशिक़-ए-जाँ-बाज़ सैकड़ों

तेग़-ए-निगाह-ए-नाज़ वो कब आज़माएँगे

अब की तो हिज्र-ए-यार में हम गोर झाँक आए

जीते हैं तो किसी से न फिर दिल लगाएँगे

ऐ शहसवार-ए-नाज़ ये मिटता है बार बार

तेरे समंद-ए-हुस्न को हम ख़ुद बनाएँगे

हम क्यूँ इताअ'त इन की करें फ़ाएदा 'क़लक़'

क्या ये बुतान-ए-दहर ख़ुदा से मिलाएँगे

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