शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
क़ैद फिर क़ैद है ज़ंजीर बढ़ा दी है तो क्या
अब भी तन तेग़ से लड़ जाए तो छन बोलता है
वक़्त ने इस पे अगर धूल जमा दी है तो क्या
मेरे ख़ुसरव ने मुझे ग़म भी ज़ियादा बख़्शा
दौलत-ए-इश्क़ अगर मुझ को सिवा दी है तो क्या
हम भी तय्यार हैं फिर जान लुटाने के लिए
सामने फिर वही कूफ़ा वही वादी है तो क्या
मुजरिम-ए-दिल को कहाँ फ़ैसला सुनने का दिमाग़
उस ने बख़्शा है तो क्या और सज़ा दी है तो क्या
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