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रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है - अरशद अब्दुल हमीद कविता - Darsaal

रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है

रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है

सय्यारा-ए-हैरत की थकन मेरे लिए है

कोई मिरा आहू मुझे ला कर नहीं देता

कहते तो सभी हैं कि ख़ुतन मेरे लिए है

तप सी मुझे आ जाती है आग़ोश में उस की

वो बर्फ़ के गाले सा बदन मेरे लिए है

हैं जू-ए-तब-ओ-ताब पे अनवार के प्यासे

और शाम का ये साँवलापन मेरे लिए है

क़ंधार न काबुल न यमन मेरे लिए है

मिट्टी के उजड़ने की चुभन मेरे लिए है

बारूत में भुनते हुए अल्फ़ाज़ ओ मफ़ाहीम

अब तो यही तस्वीर-ए-सुख़न मेरे लिए है

दुनिया ही नहीं ख़ुद से ख़फ़ा रहता हूँ 'अरशद'

जीने का ये अंदाज़ ही फ़न मेरे लिए है

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