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मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए - अरशद अब्दुल हमीद कविता - Darsaal

मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए

मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए

इस इक मक़ाम पे कितने सफ़र निकल आए

उजाड़ दश्त में बस जाए मेरी वीरानी

अजब नहीं कि यहीं कोई घर निकल आए

बस एक लम्हे को चमकी थी उस की तेग़-ए-नज़र

ख़ला-ए-वक़्त में क़रनों के सर निकल आए

मचान बाँधने वाले निशाना चूक गए

कि ख़ुद मचान की जानिब से डर निकल आए

शहीद-ए-कू-ए-मोहब्बत हैं काँप जाते हैं

नदीम ख़ैर से कोई अगर निकल आए

दरख़्त-ए-सब्र-बुरीदा सही पे जानते हैं

हुआ है ये भी कि उस पर समर निकल आए

अदू के हाथ भी तेग़ ओ तबर से ख़ाली हैं

अजीब क्या है जो हम बे-सिपर निकल आए

ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं

उधर जो डूबे वो अक्सर इधर निकल आए

यहाँ तो अहल-ए-हुनर के भी पाँव जलते हैं

ये राह-ए-शेर है 'अरशद' किधर निकल आए

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