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मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है - अरशद अब्दुल हमीद कविता - Darsaal

मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है

मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है

मैं कहाँ हूँ वो मरी सर्व-ए-रवाँ जानती है

तुम से हो कर ही तो आई है लहू तक मेरे

तुम को ये सुर्ख़ी-ए-जाँ शोला-रुख़ाँ जानती है

कौन अपना है समझती है ख़मोशी शब की

अजनबी कौन है आवाज़-ए-सगाँ जानती है

दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे

उस से क्या बात छुपानी है ज़बाँ जानती है

ख़ाक को छोड़ के जाना हमें मंज़ूर नहीं

हम ख़स-ओ-ख़ार नहीं जू-ए-तपाँ जानती है

तू कभी ख़्वाहिश-ए-दुनिया नहीं करने वाला

मेरे अब्दाल तुझे दानिश-ए-जाँ जानती है

मेरे पास आ के भी रहती है गुरेज़ाँ मुझ से

मैं न डूबूँगा मिरी मौज-ए-गुमाँ जानती है

इस तरह घूरती रहती है शब-ओ-रोज़ मुझे

जैसे दुनिया मिरे सब राज़-ए-निहाँ जानती है

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