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लकीर-ए-संग को अन्क़ा-मिसाल हम ने किया - अरशद अब्दुल हमीद कविता - Darsaal

लकीर-ए-संग को अन्क़ा-मिसाल हम ने किया

लकीर-ए-संग को अन्क़ा-मिसाल हम ने किया

भुला दिया उसे दिल से कमाल हम ने किया

शुरू उस ने किया था तमाशा क़ुर्बत का

फिर उस के बाद तो सारा धमाल हम ने किया

उलट के रख दिए हम ने जुनूँ के सारे उसूल

जुनूब-ए-दश्त को शहर-ए-शिमाल हम ने किया

फ़रोग़-ए-ज़ख़्म से रौशन रखा सियाही को

अता-ए-हिज्र को नजम-ए-विसाल हम ने किया

बसा लिया तिरी ख़ुशबू को मज़रा-ए-जाँ में

शगुफ़्त-ए-ग़म तुझे कैसा निहाल हम ने किया

इक और मौज थी इस मौज-ए-आगही से उधर

सो औज-ए-अक़्ल को नज़र-ए-ज़वाल हम ने किया

बहाना कोई नहीं अब सफ़र में रहने का

ज़मीन-ए-ख़्वाब तुझे पाएमाल हम ने किया

ये बे-नियाज़ी ज़रूरी थी कार-ए-उल्फ़त में

सो ख़ुद का ध्यान न तेरा ख़याल हम ने किया

सबा तो ख़ुद ही मुख़ातिब थी ऐ फ़ज़ा-ए-क़फ़स

गवाह रहियो न कोई सवाल हम ने किया

धनक सी बन गई गोयाई से समाअत तक

ये किस के रंग को जुज़्व-ए-मक़ाल हम ने किया

हमारे ज़ख़्म की सुर्ख़ी बढ़ा गया 'अरशद'

वो बर्ग-ए-सब्ज़ जिसे दस्त-माल हम ने किया

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