जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
कि तीर-ओ-तार को फ़ितराक ही से बाँधते हैं
बयों को शाख़-ए-गुल-ए-तर ही रास आती है
अगरचे घोंसले ख़ाशाक ही से बाँधते हैं
फ़लक से नूर-ओ-तमाज़त तो लेते हैं लेकिन
शजर जड़ों को फ़क़त ख़ाक ही से बाँधते हैं
लहू से सर्फ़-ए-नज़र की अजब रिवायत है
उमीद-ए-नश्शा यहाँ ताक ही से बाँधते हैं
हम अपने हाथों पे इतराते हैं मगर 'अरशद'
तिलिस्म-ए-कूज़ा-गरी चाक ही से बाँधते हैं
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