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ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी

ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी

जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी

दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता

क्या डर है कि रहती है वफ़ा सहमी हुई सी

उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक

होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी

हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने

नमनाक निगाहों में हया सहमी हुई सी

तक़्सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना

मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी

हाँ हम ने भी पाया है सिला अपने हुनर का

लफ़्ज़ों के लिफ़ाफ़ों में बक़ा सहमी हुई सी

हर लुक़्मे पे खटका है कहीं ये भी न छिन जाए

मेदे में उतरती है ग़िज़ा सहमी हुई सी

उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती

इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी

है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़मोशी

जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी

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