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क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ

क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ

बस एक नफ़स अर्ज़-ए-तमन्ना को रुका हूँ

रहता हूँ बगूलों की तरह रक़्स में बे-ताब

ऐ हम-नफ़सो मैं दिल-ए-सहरा से उठा हूँ

क़तरा हूँ मैं दरिया में मुझे कुछ नहीं मालूम

हम-राह मिरे कौन है मैं किस से जुदा हूँ

इक लम्हा ठहर मुझ को भी हम-राह लिए चल

ऐ लैला-ए-हस्ती तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हूँ

ऐ ज़ब्त-ए-नज़र दे मिरे ईमाँ की गवाही

तू ही तो समझता है कि मैं कौन हूँ क्या हूँ

चाहे भी तो वो मुझ से जुदा हो नहीं सकता

वो है मिरी ज़ंजीर तो मैं उस की सदा हूँ

मैं अर्श-नशीं भी हूँ तिरे घर का मकीं भी

मैं निकहत-ए-ईमान हूँ मैं बू-ए-वफ़ा हूँ

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