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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए

हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए

अब फ़रेब-ए-ख़याल से भी गए

दिल पे ताला ज़बान पर पहरा

यानी अब अर्ज़-ए-हाल से भी गए

जाम-ए-जम की तलाश ले डूबी

अपने जाम-ए-सिफ़ाल से भी गए

ख़ौफ़-ए-कम-माएगी बुरा हो तिरा

आरज़ू-ए-विसाल से भी गए

शोरिश-ए-ज़िंदगी तमाम हुई

गर्दिश-ए-माह-ओ-साल से भी गए

यूँ मिटे हम कि अब ज़वाल नहीं

शौक़-ए-औज-ए-कमाल से भी गए

हम ने चाहा था तेरी चाल चलें

हाए हम अपनी चाल से भी गए

हुस्न-ए-फ़र्दा ख़याल-ओ-ख़्वाब रहा

और माज़ी ओ हाल से भी गए

हम तही-दस्त वक़्फ़-ए-ग़म हैं वही

तंग-ना-ए-सवाल से भी गए

सज्दा भी 'अर्श' उन को कर देखा

इस रह-ए-पाएमाल से भी गए

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