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दरवाज़ा तिरे शहर का वा चाहिए मुझ को - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

दरवाज़ा तिरे शहर का वा चाहिए मुझ को

दरवाज़ा तिरे शहर का वा चाहिए मुझ को

जीना है मुझे ताज़ा हवा चाहिए मुझ को

आज़ार भी थे सब से ज़ियादा मिरी जाँ पर

अल्ताफ़ भी औरों से सिवा चाहिए मुझ को

वो गर्म हवाएँ हैं कि खुलती नहीं आँखें

सहरा मैं हूँ बादल की रिदा चाहिए मुझ को

लब सी के मिरे तू ने दिए फ़ैसले सारे

इक बार तो बेदर्द सुना चाहिए मुझ को

सब ख़त्म हुए चाह के और ख़ब्त के क़िस्से

अब पूछने आए हो कि क्या चाहिए मुझ को

हाँ छूटा मिरे हाथ से इक़रार का दामन

हाँ जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा चाहिए मुझ को

महबूस है गुम्बद में कबूतर मिरी जाँ का

उड़ने को फ़लक-बोस फ़ज़ा चाहिए मुझ को

सम्तों के तिलिस्मात में गुम है मिरी ताईद

क़िबला तो है इक क़िबला-नुमा चाहिए मुझ को

मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता

इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को

वो शोर था महफ़िल में कि चिल्ला उठा 'वाइज़'

इक जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा चाहिए मुझ को

तक़्सीर नहीं 'अर्श' कोई सामने फिर भी

जीता हूँ तो जीने की सज़ा चाहिए मुझ को

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