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बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है

बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है

हर लम्हा मिरी उम्र का ज़ंजीर-ब-पा है

मैं शहर को कहता हों बयाबाँ कि यहाँ भी

साया तिरी दीवार का कब सर पे पड़ा है

है वक़्त कि कहता है रुकुंगा न मैं इक पल

तू है कि अभी बात मिरी तोल रहा है

मैं बज़्म से ख़ाकिस्तर-ए-दिल ले के चला हूँ

और सामने तन्हाई के सहरा की हवा है

आवाज़ का तेशा है न ख़ामोश तकल्लुम

ताला जो ज़बाँ पर था वो अब दिल पे पड़ा है

मैं साथ लिए फिरता हूँ सामान-ए-हलाकत

रग रग में मिरी ज़हर-ए-वफ़ा दौड़ रहा है

क्या क्या हैं तमन्नाएँ दिल-ए-ख़ाक-बसर में

ये क़ाफ़िला वीराने में क्यूँ ठहरा हुआ है

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