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बैठा हूँ वक़्फ़-ए-मातम-ए-हस्ती मिटा हुआ - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

बैठा हूँ वक़्फ़-ए-मातम-ए-हस्ती मिटा हुआ

बैठा हूँ वक़्फ़-ए-मातम-ए-हस्ती मिटा हुआ

ज़हर-ए-वफ़ा है घर की फ़ज़ा में घुला हुआ

ख़ुद उस के पास जाऊँ न उस को बुलाऊँ पास

पाया है वो मिज़ाज कि जीना बला हुआ

उस पर ग़लत है इश्क़ में इल्ज़ाम-ए-दुश्मनी

क़ातिल है मेरे हजला-ए-जाँ में छुपा हुआ

हैं जिस्म-ओ-जाँ बहम ये मगर किस को है ख़बर

किस किस जगह से दामन-ए-दिल है सिला हुआ

है राहवार-ए-शौक़ पे आसेब-ए-बे-दिली

रक्खा है कब से सामने साग़र भरा हुआ

हासिल है जिस को 'अर्श' फ़ज़ाओं में इख़्तियार

वो दिल के साथ खेल रहा है तो क्या हुआ

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