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बाज़-गश्त - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

बाज़-गश्त

मैं तेरी बस्ती से भाग कर दूर इक ख़राबे में आ गया हूँ

ये वो ख़राबा है जिस में हस्ती की रौशनी का गुज़र नहीं है

यहाँ न तू है न रंग-ओ-बू है न ज़िंदगी है

यहाँ है वो आलम-ए-ख़मोशी कि दिल की धड़कन भी बे-सदा है

कि मेरी तन्हाइयों के दामन-ए-उफ़ुक़ के दामन से जा मिले हैं

तिरे नगर के हसीन कूचे शफ़ीक़ गलियाँ जो ज़ीस्त की रौशनी का घर हैं

मिरे लिए मेरी बेबसी ने इन्हें शब-आलूद कर दिया है

वो रहगुज़र तेरे नक़्श-ए-पा पर जहाँ हज़ार आस्ताँ बने हैं

वो रहगुज़र अजनबी हुए हैं

जहाँ मैं अब हूँ वहाँ अगरचे है बे-कराँ तीरगी फ़ज़ा में

मगर यहाँ भी मिरे ख़यालों में महर बन कर तिरा सरापा दमक रहा है

हवा के बे-कैफ़ सर्द झोंके जो ज़र्द पत्तों से खेलते हैं

तो मेरी बे-आब ख़ुश्क आँखें तुझे ख़लाओं में ढूँढती हैं

मिरा तख़य्युल कि इस ख़राबे से बद-गुमाँ है

मिरे जुनूँ को झिंझोड़ता है तो सोचता हूँ

अगरचे तू एक वो हक़ीक़त है जिस का इक़रार ला-बुदी है

मगर ये तेरा वजूद मेरे लिए फ़क़त एक वाहिमा है

कि तेरी ज़ुल्फ़ों को मेरे शानों ने अपनी दुनिया से दूर पाया

कि मेरे अश्कों को तेरे दामन की आरज़ू ही रही हमेशा

मगर ये ख़ुश था

कि मेरे ग़म ने तिरे तख़य्युल में वो सितारे से भर दिए थे

चराग़ जिन के न बुझ सके हैं न बुझ सकेंगे

ये सब था लेकिन जुनूँ पे कुछ ऐसी क़दग़नें थीं

कि जज़्ब-ए-दिल हर्फ़-ए-मुद्दआ' को न पा सका था

कभी कोई दर्द लफ़्ज़ बिन कर मरी ज़बाँ पर न आ सका था

मगर न जाने वो क्या था जिस ने दिलों के पर्दे उठा दिए थे

जुनूँ के असरार वाक़िए थे

तही-ज़बाँ हम हुए थे लेकिन ज़बाँ के मुहताज कब रहे थे

कि हम निगाहों से दिल के पैग़ाम भेजते थे

ये सब था लेकिन मैं कर्ब-ए-जाँ-सोज़ का अमीं था

वो कर्ब-ए-जाँ-सोज़ था कि मेरी हयात से नींद बद-गुमाँ थी

और इस ख़राबे में जिस में हस्ती की रौशनी का गुज़र नहीं है

जहाँ न तू है न रंग-ओ-बू है न ज़िंदगी है

मिरा गुमाँ था यहाँ तुझे ख़ुद से दूर पा कर मैं कर्ब से जाँ बचा सकूँगा

तुझे कभी तो दिमाग़-ओ-दिल से हटा सकूँगा

तुझे कभी तो भुला सकूँगा

मगर ये इक और वाहिमा था

क़यामतें सोज़-ए-दर्द-ए-दिल में निहाँ वही हैं

अबस ग़म-ए-ज़िंदगी से मैं ने फ़रार चाहा

इसी तरह कर्ब-ए-जाँ-गुज़ा से मैं अब भी आतिश-ए-ब-जा हूँ हर-दम

कि अब तिरा शहर छोड़ने का इक और ग़म है

अगरचे तेरा वजूद मेरे लिए फ़क़त एक वाहिमा था

अगरचे तेरा वजूद मेरे लिए फ़क़त एक वाहिमा है

मगर तिरा पैकर-ए-मिसाली मिरे ख़यालों में जागुज़ीँ है

कि वो किसी दिल-कुशा हक़ीक़त का भी अमीं है

और उस से मुझ को मफ़र नहीं है

मैं सोचता हूँ कि उस ख़राबे से लौट जाऊँ

जहाँ न तू है न रंग-ओ-बू है न ज़िंदगी है

जहाँ मुझे आज ये भी ग़म है

कि मैं ने शहर-ए-हबीब छोड़ा

वफ़ा से मैं ने वफ़ा नहीं की

मैं सोचता हूँ कि उस ख़राबे से लौट जाऊँ

वहीं जहाँ मैं ने ज़िंदगी का सुकून ढूँडा

मगर न पाया

वहीं जहाँ मैं ने रौशनी के सराब देखे

हक़ीक़तों पर नक़ाब देखे

वहीं जहाँ मैं ने राहतों के हबाब देखे

वहीं मिलेगा सुकूँ अगर मुझ को ज़िंदगी में कहीं मिलेगा

मगर ये इक ख़ौफ़ मेरा दामन इसी ख़राबे से बाँधता है

कि इस जगह फिर अगर जुनूँ ने सुकूँ न पाया तो क्या करूँगा

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