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रौशनी बन के सितारों में रवाँ रहते हैं - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

रौशनी बन के सितारों में रवाँ रहते हैं

रौशनी बन के सितारों में रवाँ रहते हैं

जिस्म-ए-अफ़्लाक में हम सूरत-ए-जाँ रहते हैं

हैं दिल-ए-दहर में हम सूरत-ए-उम्मीद-ए-निहाँ

मिस्ल-ए-ईमाँ रुख़-ए-हस्ती पे अयाँ रहते हैं

जो न ढूँडो तो हमारा कोई मस्कन ही नहीं

और देखो तो क़रीब रग-ए-जाँ रहते हैं

हर-नफ़स करते हैं इक-तरफ़ा तमाशा पैदा

हम सर-ए-दार भी तज़ईं जहाँ रहते हैं

और भी अहल-ए-नज़र हैं कभी देखो तो सही

हम भी इस शहर में ऐ कम-नज़राँ रहते हैं

दिल की धड़कन से मिला उन का पता कुछ हम को

किस को मालूम था वर्ना वो कहाँ रहते हैं

वुसअ'त-ए-दश्त नहीं रास चमन-ज़ादों को

हम तिरे शहर की जानिब निगराँ रहते हैं

अश्क गिरते हैं तो कुछ दिल को सकूँ मिलता है

हाए वो लोग जो महरूम-ए-फ़ुग़ाँ रहते हैं

ज़िंदगी-भर का है अहबाब से इस दश्त में साथ

मिस्ल-ए-जाँ रहते हैं हम 'अर्श' जहाँ रहते हैं

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