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इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ - अर्श सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ

ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ

दरयूज़ा-गर समझ के तो थी मुल्तफ़ित हयात

वो यूँ कहो कि दामन-ए-दिल ही न वा हुआ

डूबा कुछ इस तरह से मिरा आफ़्ताब-ए-दिल

सब कुछ हुआ ये फिर न सहर-आश्ना हुआ

यूँ उस के दर पे बैठे हैं जैसे यहीं के हों

हाए ये दर्द-ए-इश्क़ जो ज़ंजीर-ए-पा हुआ

छीनी है इश्क़ ने तब-ओ-ताब-ए-दिमाग़-ओ-दिल

मैं कैसे शाह-ज़ोर से ज़ोर-आज़मा हुआ

घर से चलो तो बाँध के सर से कफ़न चलो

शहर-ए-वफ़ा से दश्त-ए-फ़ना है मिला हुआ

दिल दे के ख़ुश हूँ मैं कि हिफ़ाज़त का ग़म गया

तुझ से क़रीब है वो जो मुझ से जुदा हुआ

लब से लगा तो भूल गए हम ग़म-ए-हयात

साग़र में कोई तुझ सा हसीं है छुपा हुआ

पी हम ने ख़ूब 'अर्श' कशीद-ए-निगाह-ओ-दिल

किस मय-कदे का दर था जो हम पर न वा हुआ

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