ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है
ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है
दूर तक बिखरी हुई आवाज़ है
ख़ामुशी उस की है मिस्ल-ए-गुफ़्तुगू
हर नज़र जज़्बात की ग़म्माज़ है
किस तरह ज़िंदा हूँ तुझ को देख कर
ज़िंदगी मुझ पर तबस्सुम-साज़ है
जाँ-फ़ज़ा नग़्मात का ख़ालिक़ है ये
दिल अगरचे इक शिकस्ता साज़ है
इस तरह क़ाएम है रक़्स-ए-ज़िंदगी
साज़ उस का है मिरी आवाज़ है
क्या बताऊँ आज के इस दौर में
आदमी कितना ज़माना-साज़ है
इस लिए रखता हूँ मैं उस को अज़ीज़
हक़-परस्ती रूह की आवाज़ है
बाख़्तन है पत्थरों की सरज़मीं
फिर भी मुझ को इस पे कितना नाज़ है
मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचेगी 'अर्श'
रुक न पाएगी मिरी आवाज़ है
(1520) Peoples Rate This