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ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है - अर्श सहबाई कविता - Darsaal

ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है

ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है

दूर तक बिखरी हुई आवाज़ है

ख़ामुशी उस की है मिस्ल-ए-गुफ़्तुगू

हर नज़र जज़्बात की ग़म्माज़ है

किस तरह ज़िंदा हूँ तुझ को देख कर

ज़िंदगी मुझ पर तबस्सुम-साज़ है

जाँ-फ़ज़ा नग़्मात का ख़ालिक़ है ये

दिल अगरचे इक शिकस्ता साज़ है

इस तरह क़ाएम है रक़्स-ए-ज़िंदगी

साज़ उस का है मिरी आवाज़ है

क्या बताऊँ आज के इस दौर में

आदमी कितना ज़माना-साज़ है

इस लिए रखता हूँ मैं उस को अज़ीज़

हक़-परस्ती रूह की आवाज़ है

बाख़्तन है पत्थरों की सरज़मीं

फिर भी मुझ को इस पे कितना नाज़ है

मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचेगी 'अर्श'

रुक न पाएगी मिरी आवाज़ है

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