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नूर-अफ़शाँ है वो ज़ुल्मत में उजालों की तरह - अर्श सहबाई कविता - Darsaal

नूर-अफ़शाँ है वो ज़ुल्मत में उजालों की तरह

नूर-अफ़शाँ है वो ज़ुल्मत में उजालों की तरह

हम ने पूजा है जिसे दिल से शिवालों की तरह

ख़ून-ए-उम्मीद हुआ ख़ून-ए-तमन्ना गाहे

दिल छलकता ही रहा मय के पियालों की तरह

ज़िंदगी तेरे तग़ाफ़ुल की भी हद है कोई

इस क़दर नाज़ न कर ज़ोहरा-जमालों की तरह

जब फ़रामोश करेंगे हमें दुनिया वाले

और उभर आएँगे हम दिल में ख़यालों की तरह

दिल तो क्या चीज़ है हम रूह में उतरे होते

तुम ने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह

'अर्श' बे-बाकी-ओ-हक़-गोई है मज़हब अपना

हम न बदलेंगे कभी वक़्त की चालों की तरह

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