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हज़ार हादसात-ए-ग़म रवाँ-दवाँ लिए हुए - अर्श सहबाई कविता - Darsaal

हज़ार हादसात-ए-ग़म रवाँ-दवाँ लिए हुए

हज़ार हादसात-ए-ग़म रवाँ-दवाँ लिए हुए

कहाँ चली है ज़िंदगी कशाँ कशाँ लिए हुए

मिरे नसीब की ये ज़ुल्मतें न मिट सकीं कभी

कोई गुज़र गया हज़ार कहकशाँ लिए हुए

ये ज़िंदगी बदलते मौसमों का रंग-रूप है

कभी बहार का समाँ कभी ख़िज़ाँ लिए हुए

मिरा ये कर्ब है कि मेरा कारवाँ गुज़र गया

सिमट के रह गया हूँ गर्द-ए-कारवाँ लिए हुए

अगर वो जान-ए-आरज़ू मिले तो उस की नज़्र हो

खड़ा हूँ कब से मुंतज़िर मैं नक़्द-ए-जाँ लिए हुए

मिरे वक़ार का सवाल था मैं कुछ न कह सका

गुज़र गए वो राहतों का इक जहाँ लिए हुए

किसी भी ज़ाविए से 'अर्श' इस को देखिए मगर

क़दम क़दम पे ज़िंदगी है इम्तिहाँ लिए हुए

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