बस इसी धुन में रहा मर के मिलेगी जन्नत
तुम को ऐ शोख़ न जीने का क़रीना आया
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न नशेमन है न है शाख़-ए-नशेमन बाक़ी
चमन में कौन है पुरसान-ए-हाल शबनम का
मैं क्यूँ भूल जाऊँ
आग ही आग है गुलशन ये कोई क्या जाने
दीवाली
मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
नैरंगी-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ देखते रहे
साक़ी मिरी ख़मोश-मिज़ाजी की लाज रख
ख़ाना-ए-दिल में दाग़ जल न सका
वो सहरा जिस में कट जाते हैं दिन याद-ए-बहाराँ से
दिल-ए-फ़सुर्दा पे सौ बार ताज़गी आई
जिस में हो दोज़ख़ का डर क्या लुत्फ़ उस जीने में है