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जश्न-ए-आज़ादी - अर्श मलसियानी कविता - Darsaal

जश्न-ए-आज़ादी

बर्क़-रफ़्तारी पे अपनी रश्क करता था जहाँ

सू-ए-आज़ादी हमारा क़ाफ़िला था तेज़-गाम

सीखना है लेकिन अब मय-ख़ाना-ए-तामीर में

जुम्बिश-ए-नब्ज़-ए-तमन्ना ओ ख़िराम-ए-दौर-ए-जाम

मंज़िल-ए-मक़्सूद तक ये क़ौम जा सकती नहीं

जिस के क़ब्ज़े में नहीं अस्प-ए-सियासत की लगाम

हम को बचना चाहिए हर उस बुरे इक़दाम से

जिस से हो मतऊन दुनिया में वतन का नेक नाम

इत्तिहाद ओ आश्ती हर दम रहें पेश-ए-नज़र

जा-गुज़ीं दिल में रहे ज़ौक़-ए-अमल बिल-इलतिज़ाम

दौर-ए-आज़ादी का गौहर ऐश है ऐश-ए-हलाल

दिल ये कहता है कि यूँ पाबंद होना है हराम

दिल की तलक़ीनात पर पहले अमल फ़रमाइए

शौक़ से फिर जश्न-ए-आज़ादी मनाते जाइए

ऐश के सामाँ भी हों और फ़र्ज़ का एहसास भी

जश्न भी हो ग़म-ज़दों की नाज़-बरदारी भी हो

दाख़िल-ए-आदाब-ए-मय-नोशी हो साक़ी का अदब

मस्तियाँ हों मस्तियों के साथ हुश्यारी भी हो

कुछ पिएँ और कुछ बचाएँ तिश्ना-कामों के लिए

सादगी का नाज़ भी अंदाज़-ए-पुरकारी भी हो

हाल की ख़ातिर ख़िरद-कोशी है मुस्तसन मगर

बहर-ए-मुस्तक़बिल जुनून-ए-ज़ौक़-ए-बेदारी भी हो

नर्म-रफ़्तारी हो वक़्त-ए-सैर-ए-गुलज़ार-ए-तरब

राह-ए-पुर-ख़ार-ए-अमल में गर्म-रफ़्तारी भी हो

इस ख़ुशी के वक़्त कितने दिल हैं ग़म से पाएमाल

लुत्फ़ आ जाए अगर इन सब की ग़म-ख़्वारी भी हो

रोने वालों की हँसी को पहले वापस लाइए

शौक़ से फिर जश्न-ए-आज़ादी मनाते जाइए

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