ये दुनिया है उसे दार-उल-फ़ितन कहना ही पड़ता है

ये दुनिया है उसे दार-उल-फ़ितन कहना ही पड़ता है

यहाँ हर राहबर को राहज़न कहना ही पड़ता है

वफ़ूर-ए-अक़्ल-ए-इंसाँ से बढ़ी इंसाँ-कुशी इतनी

वफ़ूर-ए-अक़्ल को दीवाना-पन कहना ही पड़ता है

वो सहरा जिस में कट जाते हैं दिन याद-ए-बहाराँ से

बा-अल्फ़ाज़-ए-दिगर उस को चमन कहना ही पड़ता है

गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार-ए-मुजाहिद बे-असर हो जब

तो उस को क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन कहना ही पड़ता है

यहाँ कितनों के जी छूटे यहाँ कितनों के दम टूटे

वफ़ा की राह को हिम्मत-शिकन कहना ही पड़ता है

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