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एहसास-ए-हुस्न बन के नज़र में समा गए - अर्श मलसियानी कविता - Darsaal

एहसास-ए-हुस्न बन के नज़र में समा गए

एहसास-ए-हुस्न बन के नज़र में समा गए

गो लाख दूर थे वो मगर पास आ गए

इक रौशनी सी दिल में थी वो भी नहीं रही

वो क्या गए चराग़-ए-तमन्ना बुझा गए

दैर ओ हरम है और तो हासिल न कुछ हुआ

सज्दे ग़ुरूर-ए-इश्क़ की क़ीमत घटा गए

तन्हा-रवी में यूँ तो मुसीबत थी हर क़दम

हम अहल-ए-कारवाँ से तो पीछा छुड़ा गए

कितना फ़रेब-कार है एहसास-ए-बंदगी

हम मंज़िल-ए-ख़ुदी से बहुत दूर आ गए

उल्फ़त में फ़िक्र-ए-ज़ीस्त नदामत की बात थी

अच्छे रहे जो जान की बाज़ी लगा गए

जो हाल उन का था वो हमीं जानते हैं 'अर्श'

यूँ वो हमारी बात हँसी में उड़ा गए

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