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नज़र के सामने सहरा-ए-बे-पनाही है - अरमान नज्मी कविता - Darsaal

नज़र के सामने सहरा-ए-बे-पनाही है

नज़र के सामने सहरा-ए-बे-पनाही है

क़रीब ओ दूर मिरे बख़्त की सियाही है

उफ़ुक़ के पार कभी देखने नहीं देती

शरीक राह उमीदों की कम-निगाही है

भरा पड़ा था घर इस का ख़ुशी के सीले से

ये क्या हुआ कि वो अब रास्ते का राही है

वो ज़ेहन हो तो हरीफ़ों की चाल भी सीखें

हमारे पास फ़क़त उज़्र-ए-बे-गुनाही है

उखड़ते क़दमों की आवाज़ मुझ से कहती है

शिकस्त ही नहीं ये दाइमी तबाही है

अदद कमीं में है आगे ये क्या पता उस को

रह-ए-फ़रार में हारा हुआ सिपाही है

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