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न हर्फ़-ए-शौक़ न तर्ज़-ए-बयाँ से आती है - अरमान नज्मी कविता - Darsaal

न हर्फ़-ए-शौक़ न तर्ज़-ए-बयाँ से आती है

न हर्फ़-ए-शौक़ न तर्ज़-ए-बयाँ से आती है

सुपुर्दगी की सदा जिस्म-ओ-जाँ से आती है

कोई सितारा रग-ओ-पै में है समाया हुआ

मुझे ख़ुद अपनी ख़बर आसमाँ से आती है

किसी दुकान से मिलती नहीं है गर्मी-ए-शौक़

ये आँच वो है जो सोज़-ए-निहाँ से आती है

खुला नहीं है वो मुझ पर किसी भी पहलू से

नहीं की गूँज अभी उस की हाँ से आती है

अजीब शय है नशात-ए-यक़ीं की दौलत भी

किसी वजूद के वहम-ओ-गुमाँ से आती है

परिंदे शाम ढले राह में नहीं रुकते

कोई नवेद उन्हें आशियाँ से आती है

मिठास घोलता है कौन मेरे लहजे में

मिरे सुख़न में हलावत कहाँ से आती है

गुरेज़ भी कहीं इज़हार-ए-आरज़ू ही न हो

कशिश ये कैसी बदन की कमाँ से आती है

किसी हिजाब की बंदिश को मानती ही नहीं

जो मौज रूह की जू-ए-रवाँ से आती है

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