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घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर - अरमान नज्मी कविता - Darsaal

घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर

घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर

निकल कर घर से मर्ग-ए-ना-गहानी का तमाशा कर

जो ज़िंदा आग में डाले गए लाशें न गिन उन की

जो बच निकले हैं उन की सख़्त-जानी का तमाशा कर

जो तख़्त-ओ-ताज के मालिक हैं क्या वो मो'तबर भी हैं

शर-अंगेज़ी में डूबी हुक्मरानी का तमाशा कर

बचा क्या रह गया कालक भरे झुलसे मकानों में

उजाड़ी बस्तियों की बे-निशानी का तमाशा कर

नई तारीख़ के सफ़्हों पे लिक्खा जा रहा है क्या

हुरूफ़-ए-क़हर की आतिश-फ़िशानी का तमाशा कर

जो दिल में है उसे ना-गुफ़्ता रहने दे तो बेहतर है

बदलती सूरत-ए-हर्फ़-ओ-मआनी का तमाशा कर

न कोई ख़्वाब बाक़ी है न आँसू ख़ुश्क आँखों में

तही-दस्तों की गुम-सुम नौहा-ख़्वानी का तमाशा कर

हर इक शब शुक्र कर तेरी अभी गर्दन सलामत है

हर इक दिन सैल-ए-ख़ूँ की बे-करानी का तमाशा कर

क़यामत सर तक आ पहुँची है रख ले हाथ आँखों पर

मता-ए-ज़िंदगी की राएगानी का तमाशा कर

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