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दिमाग़-ओ-दिल पे हो क्या असर अँधेरे का - अरमान नज्मी कविता - Darsaal

दिमाग़-ओ-दिल पे हो क्या असर अँधेरे का

दिमाग़-ओ-दिल पे हो क्या असर अँधेरे का

कि दीदा-वर भी है अब हम-सफ़र अँधेरे का

दयार-ए-नूर में हर सम्त ख़ाक उड़ने लगी

वजूद होने लगा मो'तबर अँधेरे का

ये रास्ता तो चराग़ों से जगमगाता है

इधर से होने लगा क्यूँ गुज़र अँधेरे का

अब इस के फूलने-फलने में दिन ही कितने हैं

जड़ें जमा तो चुका है शजर अँधेरे का

यहाँ तो रौशनियों का पड़ाव होता है

तो क्या यहीं पे बसेगा नगर अँधेरे का

सिसकती शम्ओं' का ये आख़िरी ठिकाना है

शुरूअ' होगा यहीं से सफ़र अँधेरे का

बसीरतों के अमीं हैं हमीं मगर हम ने

बसा लिया है रग-ओ-पै में डर अँधेरे का

मनाओ ख़ैर उजालों के बाम-ओ-दर वालो

फ़ज़ा में रक़्स-कुनाँ है शरर अँधेरे का

वो अपने साथ तो ले कर चराग़ चलते थे

शिकार क्यूँ हुए अहल-ए-नज़र अँधेरे का

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