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ये दिन - आरिफ़ा शहज़ाद कविता - Darsaal

ये दिन

यही दिन तो अज़ल से मेरी क़िस्मत था

मगर आँखों में सहरा ने भरी वो रेत

सब तारीक लगता था

मैं कितने ही सराबों और अज़ाबों से थी गुज़री

ख़ुश्क होंटों पर दुआएँ भी नहीं थीं

अभी तो आसमाँ देखा था मैं ने

निशाँ तक भी नहीं था बादलों का

अजब दिन है

सर-ए-सहरा है वो जल-थल

कि हम यूँ

भीगते छींटे उड़ाते

मुस्कुराते मंज़रों के आईने में

देखते हैं अक्स

जो आँखों में खुलते हैं!

रगों में साअ'तों की

एक सरशारी समाई है

यही इक दिन तो मेरी ज़िंदगी भर की कमाई है

इसी की कोख से उभरेंगे

सद-हा मुस्कुराते दिन

भुला बैठे वो साल ओ सिन

कि जब इस ज़िंदगी को एक पल फ़ुर्सत नहीं थी

आ के मिल लेती

ये देखो! ज़िंदगी ने आज ख़ुद आ के पुकारा है

यक़ीं है

अब से हर लम्हा हमारा है!

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