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वहाँ मैं नहीं थी - आरिफ़ा शहज़ाद कविता - Darsaal

वहाँ मैं नहीं थी

फ़क़त ख़ाली पिंजरा बदन का पड़ा था

और नीम-वा इन किवाड़ों की हर चरचराहट में

हैरानियाँ बोलती थीं

ज़मीं की फ़ज़ा से

मुझे किस ने बाहर ढकेला

फ़लक तक मिरी दस्तरस क्यूँ नहीं थी

न जाने मैं कब तक ख़ला में भटकती रही थी

वहीं पर

मुनक़्क़श दरीचों में

सरसब्ज़ बेलें सुतूनों से लिपटी हुई थीं

चमकते हुए छत के फ़ानूस की रौशनी में

बेलों के पत्तों की आँखों में ठहरी नमी

झिलमिलाने लगी थी!

मगर सब की नज़रें

सजी टेबलों पर जमी थीं

किसी को ख़बर कब हुई थी

वहाँ में नहीं थी

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