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हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है - आरिफ़ शफ़ीक़ कविता - Darsaal

हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है

हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है

तुझे तेरी मुझे मेरी ज़रूरत खींच लाती है

छुपा है जो ख़ज़ाना तह में इन बंजर ज़मीनों की

उसे बाहर ज़मीं से मेरी मेहनत खींच लाती है

मैं माज़ी को भुला कर अपने मुस्तक़बिल में ज़िंदा हूँ

निगाहों से है जो ओझल बशारत खींच लाती है

मिरा दुश्मन मिरी आँखों से ओझल हो नहीं सकता

मिरे नज़दीक उस को दिल की नफ़रत खींच लाती है

समुंदर पार जाने वाले इक दन लौट आएँगे

मिरा ईमाँ है मिट्टी की मोहब्बत खींच लाती है

जो अपना घर किसी के इश्क़ में बर्बाद करते हैं

उन्हें सहरा में उन के दिल की वहशत खींच लाती है

कभी होता है जो वीरान मेरे शहर का मक़्तल

किसी मंसूर को 'आरिफ़' सदाक़त खींच लाती है

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