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तुम्हारी याद तारी हो रही है - आरिफ़ इशतियाक़ कविता - Darsaal

तुम्हारी याद तारी हो रही है

तुम्हारी याद तारी हो रही है

बड़ी ही यादगारी हो रही है

तुम्हें तो लौट कर आना नहीं है

मुझे तो इंतिज़ारी हो रही है

मिरे अंदर कोई लड़ मर रहा है

बड़ी तख़रीब-कारी हो रही है

तिरे कूचे में तो साज़िश हुई थी

वहाँ क्यूँ आह-ओ-ज़ारी हो रही है

तिरे अंदर कहाँ सब्ज़ा उगेगा

ख़िज़ाँ में काश्त-कारी हो रही है

मुझी पे डाल दे सारा ख़सारा

तुझे क्यूँ शर्मसारी हो रही है

ये दुनिया की मोहब्बत और ये दुनिया

तुम्हारी थी तुम्हारी हो रही है

दर-ए-अफ़्लाक से क्या झाँकता है

ज़मीं पे मारा-मारी हो रही है

ज़मीं पर एक मुल्क ऐसा है जिस में

ग़ज़ब की दीन-दारी हो रही है

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