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मैं अब उक्ता गया हूँ फुर्क़तों से - आरिफ़ इशतियाक़ कविता - Darsaal

मैं अब उक्ता गया हूँ फुर्क़तों से

मैं अब उक्ता गया हूँ फुर्क़तों से

निकालूँ किस तरह तुझ को रगों से

जुदाई ताक में बैठी हुई थी

मोहब्बत कर रहे थे मश्वरों से

तुझे मैं ने मुझे तू ने गँवाया

मगर अब फ़ाएदा इन तज़्किरों से

दुआएँ हो गईं ना रद तुम्हारी

मैं क़ाइल ही नहीं हूँ फ़लसफ़ों से

मिरे सब हौसले मारे गए हैं

तुम्हारी कम-सिनी के फ़ैसलों से

तुम्हारी याद ख़ूनी है मिरी भी

लड़ें हम किस तरह इन भेड़ियों से

वो वहशत है कि है वो सोग बरपा

मैं हँसता तक नहीं हूँ क़हक़हों से

तुम्हारे ग़म कि जाँ को आ गए हैं

नहीं शायद मगर हाँ कुछ दिनों से

हमारे बीच इक दीवार है अब

इसे ऊँचा करेंगे नफ़रतों से

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