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ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर - आरिफ़ इमाम कविता - Darsaal

ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर

ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर

एड़ियों तक ख़ूँ बहा कर रक़्स कर

जामा-ए-ख़ाकी पे मुश्त-ए-ख़ाक डाल

ख़ुद को मिट्टी में मिला कर रक़्स कर

इस इबादत की नहीं कोई क़ज़ा

सर को सज्दे से उठा कर रक़्स कर

दूर हट जा साया-ए-मेहराब से

धूप में ख़ुद को जला कर रक़्स कर

भूल जा सब कुछ मगर तस्वीर-ए-यार

अपने सीने से लगा कर रक़्स कर

तोड़ दे सब हल्क़ा-ए-बूद-ओ-नबूद

ज़ुल्फ़ के हल्क़े में जा कर रक़्स कर

उस की चश्म-ए-मस्त को नज़रों में रख

इक ज़रा मस्ती में आ कर रक़्स कर

अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद

अपनी हस्ती को मिटा कर रक़्स कर

उस के दरवाज़े पे जा कर दफ़ बजा

उस को खिड़की में बुला कर रक़्स कर

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