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सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं - आरिफ़ इमाम कविता - Darsaal

सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं

सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं

शराब पीते नहीं हम शराब देखते हैं

किसी भी तौर उठे पर तिरी निगाह उठे

जला के घर तुझे ख़ाना-ख़राब देखते हैं

उसे न देख सकेंगे ऐ काश इन्हें देखें

वो कौन हैं जो इसे बे-नक़ाब देखते हैं

हमारे चेहरे पे लिक्खा गया फ़साना-ए-वक़्त

हम आईना नहीं तकते किताब देखते हैं

वो है ही लाइक़-ए-सज्दा सो हम ने सज्दा किया

वो और हैं जो अज़ाब ओ सवाब देखते हैं

हवस न जान तुझे छू के देखना ये है

तुझे ही देख रहे हैं कि ख़्वाब देखते हैं

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