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शायरी मुझ को अजब हाल में ले जाती है - आरिफ़ इमाम कविता - Darsaal

शायरी मुझ को अजब हाल में ले जाती है

शायरी मुझ को अजब हाल में ले जाती है

कभी मातम कभी धम्माल में ले जाती है

में किसी चश्म-ए-निगह-दार की हद में हूँ कि जो

मुझ को वापस मिरे अहवाल में ले जाती है

मेरी ख़्वाहिश बड़ी तफ़्सील-तलब है लेकिन

तेरी सूरत मुझे इज्माल में ले जाती है

मैं बिछाता हूँ मुसल्ला सर-ए-मेहराब-ए-नियाज़

फिर इबादत मुझे पाताल में ले जाती है

मैं तो सुनता ही नहीं हूँ कोई गुफ़्तार-ए-ख़िरद

ये कभी क़ील कभी क़ाल में ले जाती है

रास आई न मुझे आइना-ख़ाने की चमक

ये मिरी शक्ल को अश्काल में ले जाती है

ख़ुद-फ़रामोशी की इक लहर कहीं से आ कर

एक दो बार मुझे साल में ले जाती है

इस लिए सोता नहीं मैं कि निगार-ए-दुनिया

ख़ेमा-ए-ख़्वाब से पिंडाल में ले जाती है

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