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नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी - आरिफ़ इमाम कविता - Darsaal

नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी

नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी

वो ख़ुश नहीं है हमारा ये हाल कर के भी

अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे

वो ताज़ा-दम रहा मुझ को निढाल कर के भी

हमें अज़ीज़ हमेशा रही है निस्बत-ए-ख़ाक

ये सर झुका रहा कस्ब-ए-कमाल कर के भी

लो हम न कहते थे हम को नहीं उमीद-ए-जवाब

लो हम ने देख लिया है सवाल कर के भी

ये एक उम्र पुरानी शराब है यारो

ख़ुमार-ए-हिज्र रहेगा विसाल कर के भी

उसी के नाम का सज्दा किया मुसल्ले पर

उसी का ज़िक्र किया है धमाल कर के भी

शराब दाना-ए-अँगूर से बराबर खींच

पर एक कूज़ा कशीद-ए-ख़याल कर के भी

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