मुझे ब-फ़ैज़-ए-तफ़क्कुर हुआ है ये इदराक
मुझे ब-फ़ैज़-ए-तफ़क्कुर हुआ है ये इदराक
चमक उठूँगा किसी रोज़ मैं सर-ए-अफ़्लाक
किस औज-मौज में मुझ पर खुला है ये अहवाल
ज़मीं से ता-ब-फ़लक उड़ रही है मेरी ख़ाक
अजब नहीं कि नया आफ़्ताब उभरने तक
ख़ला के हाथ पे गर्दां रहे ज़मीं का चाक
यक़ीन भी था उसे हिज्र का मगर फिर भी
सबा के पहलू से लिपटी बहुत चमन की ख़ाक
ये ख़ाक ही मिरी ज़ंजीर बन गई वर्ना
मिरी निगाह में जचती नहीं कोई पोशाक
(758) Peoples Rate This