मुझ को जन्नत से उठा कर ये कहाँ फेंक दिया
अपने मस्कन से बहुत दूर रहूँगा कैसे
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रहती है सबा जैसे ख़ुशबू के तआ'क़ुब में
अपने अहबाब को अशआ'र सुनाने निकला
अल्फ़ाज़ के पत्थर क्या फेंके गए पानी में
ज़हराब-ए-तिश्नगी का मज़ा हम से पूछिए
दास्ताँ भी मुख़्तलिफ़ लहजा भी यारों से जुदा
कुछ मिरी सुन कुछ अपनी सुना ज़िंदगी
दिल क्या किसी की बात से अंदर से कट गया
बाग़बाँ की बे-रुख़ी से नीले-पीले हो गए