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हयूले - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

हयूले

समुंदरों के मुहीब तूफ़ाँ मेरे अज़ाएम के साहिलों से शिकस्त खा कर पलट चुके हैं

मैं कोहसारों की हस्तियोंं से भी आसमाँ का वक़ार बन कर उलझ चुका हूँ

मैं जंगलों की हवाओं का ज़ोर तोड़ देता रहा हूँ अपने नफ़स की शोरीदा सतवतों से

मिरे तफ़क्कुर की गर्म-रफ़्तारियों से लर्ज़ां रहे हैं सहराओं के बगूले

ये ज़िक्र है उस तवील माज़ी का मैं अकेला था इस भरी काएनात में जब

फ़क़त मिरी जाँ-गुदाज़ तन्हाई साया बन कर थी साथ मेरे

मैं उन दिनों सोचता था मेरा वजूद आईना-दार ताब-ओ-तवाँ है जिस को

ज़वाल-ए-आमादगी से निस्बत नहीं है कोई

और आज जब कि ये मेरे बच्चे

जिन्हें ज़माने की आँख ने मेरे दस्त-ओ-बाज़ू का रूप समझा

मिरी तवानाइयों के मरकज़ का अक्स जाना

मिरे रग-ओ-पै में एक एहसास-ए-ख़ौफ़ हर-दम उभारते हैं

तो सोचता हूँ

मैं कितना कमज़ोर हो गया हूँ

हवा का इक ना-तवाँ सा झोंका भी उन के पहलू से जब गुज़रता है

लाख अंदेशे जाग उठते हैं मेरे दिल में

अजीब तशवीश घेर लेती है जिस्म-ओ-जाँ की तमाम ताबिंदा वुसअ'तों को

मैं अपने बच्चों को अपनी क़ुव्वत कहूँ कि बे-हिम्मती का मज़हर

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