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मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम

मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम

तेरी आँखों से टपका है आँसू बन कर मेरा ग़म

दिल को नाज़ है सुलझाव पर लेकिन मैं ने देखा है

सुलझाने से और उलझा है तेरी ज़ुल्फ़ का इक इक ख़म

दिन के बोलते हंगामे में अक्सर सोया रहता है

करवट ले कर जाग उठता है रात की चुप में तेरा ग़म

हिज्र के सँवलाए लम्हों में आस भी तन्हा छोड़ गई

किस से पूछूँ कौन बताए रात हुई है कितनी कम

तेरी धुन में तुझ से भी शायद आगे जा निकला हूँ मैं

तेरे पहलू में बैठा हूँ फिर भी आँखें हैं पुर-नम

तेरा ग़म हम दीवानों को किस आलम में छोड़ गया

एक ज़माना हम से ख़फ़ा है एक जहाँ से हम बरहम

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