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कितनी हसरत से तिरी आँख का बादल बरसा - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

कितनी हसरत से तिरी आँख का बादल बरसा

कितनी हसरत से तिरी आँख का बादल बरसा

ये अलग बात मिरा शोला-ए-ग़म बुझ न सका

तेरा पैकर है वो आईना कि जिस के दम से

मैं ने सौ रूप में ख़ुद अपना सरापा देखा

एक लम्हे के लिए चाँद की ख़्वाहिश की थी

उम्र भर सर पे मिरे क़हर का सूरज चमका

जब भी एहसास-ए-अमाँ बाइ'स-ए-तस्कीं ठहरा

अन-गिनत ख़तरों की आहट से दिल अपना धड़का

मैं अज़िय्यत की गुफाओं में कराहूँ कब तक

बे-गुनाही की सज़ा के लिए मीआ'द है क्या

तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन

रात सहरा-ए-अना से मैं हिरासाँ गुज़रा

सेहर-ए-गोयाई के किस दश्त का फ़ैज़ान है ये

हर सुख़न लब से तिरे सूरत-ए-आहू निकला

मैं ने जिस शाख़ को फूलों से सजाया 'आरिफ़'

मेरे सीने में उसी शाख़ का काँटा उतरा

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