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बजा कि कश्ती है पारा पारा थपेड़े तूफ़ाँ के खा रहा हूँ - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

बजा कि कश्ती है पारा पारा थपेड़े तूफ़ाँ के खा रहा हूँ

बजा कि कश्ती है पारा पारा थपेड़े तूफ़ाँ के खा रहा हूँ

मगर ये ए'ज़ाज़ कम नहीं है कि आप ही अपना नाख़ुदा हूँ

कभी तो मैं ने धुनक दिए हैं पहाड़ भी अपने रास्ते के

कभी मैं ख़ुद अपने रास्ते की मुहीब दीवारें हो गया हूँ

मुझे है शब-ख़ूँ की फ़िक्र लेकिन उन्हें हलाकत का डर नहीं है

मिरे क़बीले के लोग सोते हैं और शब-भर मैं जागता हूँ

मिरी हक़ीक़त तज़ाद की इस गिरह के खुलने पे मुनहसिर है

मैं वक़्त का हूँ जलील ख़ुसरव मैं अहद का बे-नवा गदा हूँ

ये बात अलग है कि ग़ुंचा ग़ुंचा मिरे चलन से चटक रहा है

सबा का झोंका हूँ गुलिस्ताँ से मैं बे-सदा सा गुज़र रहा हूँ

जहाँ का शेवा सितम था लेकिन मुझे वफ़ा से रही है निस्बत

जहाँ ग़लत था कि मैं ग़लत था ये बात रह रह के सोचता हूँ

मिरी जबीं का चमकता सूरज मिरे जिलौ में सदा रहा है

मैं रात की ज़ुल्मतों को 'आरिफ़' अज़ल से ललकारता रहा हूँ

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