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ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं

ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं

मगर उफ़ुक़ की तरफ़ कोई देखता भी नहीं

सुना है सब्ज़ रवा ओढ़ ली चमन ने मगर

हवा के ज़ोर से बर्ग-ए-ख़िज़ाँ गिरा भी नहीं

बहुत बसीत है दश्त-ए-जफ़ा की तन्हाई

क़रीब-ओ-दूर कोई आहू-ए-वफ़ा भी नहीं

मुझे तो अहद का आशोब कर गया पत्थर

मैं दर्द-मंद कहाँ दर्द-आश्ना भी नहीं

कभी ख़याल के रिश्तों को भी टटोल के देख

मैं तुझ से दूर सही तुझ से कुछ जुदा भी नहीं

क़दम क़दम पे शिकस्तों का सामना है मगर

ये दिल वो शीशा-ए-जाँ है कि टूटता भी नहीं

मिरे वजूद में बरपा है उस ख़याल से हश्र

जो मेरे ज़ेहन में पैदा अभी हुआ भी नहीं

मैं जिस के सेहर से कोह-ए-निदा तक आ पहुँचा

वो हर्फ़ अभी मिरे लब से अदा हुआ भी नहीं

मैं एक गुम्बद-ए-बे-दर में क़ैद हूँ 'आरिफ़'

मिरी नवा का सफ़र वर्ना बे-दरा भी नहीं

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