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गुल-दान - आरिफ़ अब्दुल मतीन कविता - Darsaal

गुल-दान

साल-हा-साल बयाबान-ए-गुमाँ को सींचा

ख़ून-ए-इदराक से आब-ए-जाँ से

तब कहीं उस में हुवैदा हुए अफ़्कार के फूल

फूल जिन को मिरे बेटे तिरी फ़रहत के लिए

शीशा-ए-रूह के गुल-दाँ में सजा लाया हूँ

और चुपके से ये गुल-दाँ मैं ने

रख दिया है तिरी पढ़ने की नई मेज़ पे यूँ

जैसे इस मेज़ की तकमील थी उस की मुहताज

और समझता हूँ कि इन फूलों की नादीदा हसीं ख़ुश्बू से

तेरे कमरे की हर इक चीज़ महक उट्ठी है

कौन जाने कि मिरी सोच मिरे ज़ो'म की गुल-कारी हो

फ़िक्र की शो'बदा-बाज़ी हो तसव्वुर की तलबगारी हो

और तू सीटी बजाता हुआ कमरे में हो दाख़िल तो तुझे

अजनबी बास का कर्ब

यक-ब-यक साँस के रुकने की अज़िय्यत से हम-आग़ोश करे

और झुँझला के तू गुल-दाँ को दरीचे से परे

फेंक दे जादा-ए-संगीं की तरफ़

पस-ए-दीवार खड़ा

मैं सुनूँ टूटते गुल-दाँ की सदा

और मिरे काँपते होंटों से उठे

तेरे एहसास की बरनाई के बे-टोक पनपने की दुआ

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