मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था
मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था
नीम का वो पेड़ जो आँगन में था
जिस पे लिक्खा था मिरा नाम-ओ-नसब
क़ैद मैं मिट्टी के उस बर्तन में था
एक वो हर दश्त में सैराब था
एक मैं प्यासा हर इक सावन में था
देख कर भी जो न देखा जा सका
अक्स-आरा वो हर इक दर्पन में था
कह न पाया जाने क्यूँ इक हर्फ़ भी
जाने क्या उस आदमी के मन में था
जिस को कोई नाम दे सकता नहीं
वो बुलावा उस पराए-पन में था
आँधियाँ सब कुछ उड़ा कर ले गईं
पेड़ पर पत्ता न फल दामन में था
जा-ब-जा क़ौस-ए-क़ुज़ह की छूट थी
इक तिलिस्म आबाद पैराहन में था
छीन कर 'शादाब' कोई ले गया
इक अनोखा सुख जो घर-आँगन में था
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