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मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था - अक़ील शादाब कविता - Darsaal

मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था

मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था

नीम का वो पेड़ जो आँगन में था

जिस पे लिक्खा था मिरा नाम-ओ-नसब

क़ैद मैं मिट्टी के उस बर्तन में था

एक वो हर दश्त में सैराब था

एक मैं प्यासा हर इक सावन में था

देख कर भी जो न देखा जा सका

अक्स-आरा वो हर इक दर्पन में था

कह न पाया जाने क्यूँ इक हर्फ़ भी

जाने क्या उस आदमी के मन में था

जिस को कोई नाम दे सकता नहीं

वो बुलावा उस पराए-पन में था

आँधियाँ सब कुछ उड़ा कर ले गईं

पेड़ पर पत्ता न फल दामन में था

जा-ब-जा क़ौस-ए-क़ुज़ह की छूट थी

इक तिलिस्म आबाद पैराहन में था

छीन कर 'शादाब' कोई ले गया

इक अनोखा सुख जो घर-आँगन में था

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